Fundamental Rights – Part-3 – तीसरा भाग (अनुच्छेद 12 से 35) – मौलिक अधिकार
- अधिकार वे सामाजिक दशाएँ हैं, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक समझी जाती हैं।
- हैराल्ड लॉस्की के अनुसार “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियां हैं, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक हैं।”
- मौलिक अधिकारों में संशोधन के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर निर्णय दिया है।
- शंकरी प्रसाद तथा सज्जन सिंह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद सर्वोच्च है और संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है।
- चाहे वह भाग तीन का मौलिक अधिकार ही क्यों न हो।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व के दृष्टिकोण में परिवर्तन करते हुए यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 368 के माध्यम से संसद संविधान के भाग तीन में संशोधन नहीं कर सकती, क्योंकि अनुच्छेद 368 में केवल संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है।
- केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व के निर्णय में संशोधन करते हुए यह निर्णय दिया कि संसद सर्वोच्च है और वह संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, लेकिन संशोधन का स्वरूप इस प्रकार नहीं होना चाहिए जिससे संविधान का आधारभूत ढांचा ही परिवर्तित हो जाये।
मौलिक अधिकारों का निलम्बन
- भारतीय संविधान में दिया गया मौलिक अधिकार निरपेक्ष अधिकार नहीं है, बल्कि इनके प्रयोग पर युक्ति-युक्ति प्रतिबंध (निबंधन) आरोपित किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 33 में यह प्रावधान है कि संसद प्रतिरक्षा सेना के सदस्यों के संबंध में मौलिक अधिकारों को सीमित या प्रतिबंधित कर सकती है. जिससे वह अपने कर्त्तव्य का पालन कर सके।
- संसद ने इस शक्ति का प्रयोग करते हुए सेना अधिनियम 1950, वायुसेना अधिनियम 1950 तथा नौसेना अधिनियम 1950 पारित किया।
- अनुच्छेद 34 के अनुसार किसी क्षेत्र में सैन्य विधि या मार्शल लॉ लागू हो तो संसद नागरिकों के मूल अधिकारों को सीमित कर सकती है।
- आपात काल की स्थिति में भी मौलिक अधिकारों को सीमित किया जा सकता है।
मौलिक अधिकारों का वर्गीकरण
- भारत के मूल संविधान में सात प्रकार के मौलिक अधिकार दिये गये थे, लेकिन 44 वे संविधान संशोधन (1978) के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को निलम्बित कर दिया गया, जिससे मौलिक अधिकारों की संख्या घटकर 6 हो गयी-
- समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
- स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
- सांस्कृतिक एवं शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
- संवैधानिक संरक्षण का अधिकार (अनुच्छेद 32)
समानता का अधिकार
अनुच्छेद
14 (व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता से तथा विधियों के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जायेगा)
- ‘विधि के समक्ष समानता’ शब्द ब्रिटिश संविधान से लिया गया है जिसका तात्पर्य यह है कि विधि की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान हैं, चाहे उसकी सामाजिक स्थिति कुछ भी क्यों न हो। यह प्रावधान राज्य के ऊपर एक नकारात्मक प्रतिबंध आरोपित करता है अर्थात् राज्य किसी ऐसे कानून का निर्माण नहीं करेगा जो असमानता को बढ़ावा दे।
- ‘विधि का समान संरक्षण’ शब्द अमेरिका के संविधान से लिया गया है| जिसका तात्पर्य यह है कि समान स्थिति वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान कानून| अर्थात समानों के साथ समानता और आसमानों के साथ असमानता|
15 (धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध)
- संविधान का यह अनुच्छेद धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंध लगाता है अर्थात् जो कानून अनुच्छेद 15 के अंतर्गत अवैध है उसे अनुच्छेद 14 के अंतर्गत उचित नहीं माना जा सकता।
- अनुच्छेद 15 का लाभ केवल नागरिकों को प्रदान की गयी है, अन्य व्यक्ति को नहीं, जबकि अनुच्छेद 14 के अंतर्गत प्रदान की गयी समानता सभी व्यक्तियों के संबंध से है।
- राज्य सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों तथा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए विशेष उपबंध कर सकता है अर्थात् 104 वे संविधान विधेयक के द्वारा अनुच्छेद 15 (5) को जोड़ा गया, जो सामाजिक और शैक्षणिक या सामाजिक रूप से पिछड़े किसी वर्ग के नागरिकों या अनुसूचित जाति या जनजाति की प्रगति के लिए सरकारी सहायता प्राप्त या गैर सरकारी शिक्षण संस्थान में प्रवेश के संबंध में विशेष उपबंध बनाये जाने की बात करता है।
16 (लोक नियोजन में अवसर की समता)
- अनुच्छेद 16 राज्य के अधीन किसी पद पर नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता की बात करता है। अनुच्छेद 16 (1) और (2) में राज्य के नियोजन में समानता का सामान्य नियम निहित है, लेकिन समानता के इस सिद्धान्त के विरूद्ध अनुच्छेद (16)-3) (4) व (5) में अपवाद दिया गया है।
- अनुच्छेद 16 (3) द्वारा संसद को यह शक्ति दी गयी है कि वह विधि बनाकर सरकारी सेवाओं में नियुक्ति के लिए उस राज्य में निवास की योग्यता को शामिल कर सकती है।
- अनुच्छेद 16 (4) द्वारा राज्य को सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों के लिए पदों को आरक्षित करने की शक्ति दी गयी है।
- अनुच्छेद 16 (5) द्वारा उन विधियों के लागू होने को अनुच्छेद 16 (1) (2) के प्रभाव से बचाता है कि, जो किसी धार्मिक संस्था के पद पर नियुक्ति के लिए किसी विशेष धर्म की जानकारी रखने की योग्यता निहित करता है|
17 (अस्पृश्यता का अन्त)
- संसद ने इस शक्ति का प्रयोग करते हुए अस्पृश्यता अधिनियम 1955 पारित किया।
- 1976 में इसमें संशोधन करके नागरिक संरक्षण अस्पृश्यता अधिनियम 1955 कर दिया गया। इस अधिनियम में निम्न प्रावधान किये गये-
- अस्पृश्यता का समर्थन करना एक दाण्डिक अपराध होगा।
- दाण्डिक अपराध के रूप में 2 वर्ष की सजा या 500 रु. का जुर्माना या दोनों।
- अस्पृश्यता का समर्थन करने वालों को संसद तथा राज्य विधान सदस्य के रूप में निर्वाचित होने के लिए अयोग्य माना जायेगा।
18 (उपाधि का अन्त)
- इस अनुच्छेद का उद्देश्य ब्रिटिश शासन द्वारा व्यक्तियों को प्रदान की जा रही उपाधि से जिस सामन्तवादी व्यवस्था की स्थापना की गयी थी, उस सामन्तवादी व्यवस्था का अन्त करना था।
- 1954 में भारत सरकार द्वारा भारत रत्न, पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण देने की प्रथा की शुरुआत की गयी। जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में इन उपाधियों को देने की प्रथा को बन्द कर दिया, परंतु श्रीमती गांधी की सरकार ने 1980 में इन उपाधियों को देने की प्रथा को पुनः शुरु किया, जो आज तक विद्यमान है।
स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद
19 (वाक्-स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण)
- अनुच्छेद 19 के तहत भारतीय नागरिकों को 6 प्रकार की स्वतंत्रता दान की गयी है। मूल संविधान में 7 प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की गयी थी। 44 वे संशोधन द्वारा सम्पत्ति की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया गया। जिससे 6 प्रकार की स्वतंत्रता पायी जाती है। अनुच्छेद 19(1) प्रत्येक नागरिक को-
- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
- निरायुद्ध सम्मेलन
- संगम या संघ बनाने की
- भारत में कहीं पर घूमने
- कहीं पर निवास करने
- कोई व्यवसाय, आजीविका या कारोबार की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 19(1)(A) में कई प्रकार की स्वतंत्रता को शामिल किया गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है। विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक शासन प्रणाली का आधार स्तम्भ है।
- न्यायपालिका द्वारा विभिन्न मामलों के द्वारा अनुच्छेद 19(1)(A) का विस्तृत विश्लेषण किया और यह निर्णय दिया कि प्रेस की स्वतंत्रता, सूचना प्राप्त करने का अधिकार और झण्डा फहराने का अधिकार विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ही शामिल है|
20 (अपराधों के लिए दोहरे दंड से स्वतंत्रता)
अनुच्छेद 20 के अनुसार, उन व्यक्तियों जिन पर अपराध का आरोप लगाया है, को निम्न रूप से संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है-
- कार्योत्तर विधियों से संरक्षण.
- दोहरे दण्ड से संरक्षण, और
- आत्म अभिशासन से संरक्षण।
- अनुच्छेद 20 (1) के अंतर्गत कार्योत्तर विधि से संरक्षण के अनुसार किसी व्यक्ति को सिर्फ प्रचलित विधि के उल्लंघन के अतिरिक्त अन्य अपराध के लिए दण्ड नहीं दिया जा सकता है अर्थात् कोई कार्य जब सम्पादित किया जा रहा हो उस समय किसी विधि का उल्लंघन न हुआ हो तो उसे वाद में अपराध घोषित नहीं किया जा सकता ।
- अनुच्छेद 20 (2) के अंतर्गत दोहरे दण्ड से संरक्षण प्रदान किया गया है अर्थात् किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार दण्ड नहीं दिया जा सकता है।
- अनुच्छेद 20 (3) के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को जिस पर कोई आरोप लगाया गया हो, स्वयं अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण)
- उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया है कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार में ही आजीविका का अधिकार भी शामिल है।
- 86वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद 21 A जोड़ा गया है, जिसके द्वारा 6-14 वर्ष के बालकों को निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होगा।
22 (कुछ दशाओं में गिरफ्तारी व निरोध से संरक्षण)
- यह अनुच्छेद 21 का पूरक है। अनुच्छेद 22 में उन शर्तों का वर्णन किया गया है, जिसका पालन नहीं करने पर किसी व्यक्ति को उसकी दैहिक स्वतंत्रता से वंचित करना विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार नहीं माना जायेगा|
- अनुच्छेद 22(1) के अनुसार, व्यक्ति के दंडात्मक गिरफ़्तारी से निम्न प्रकार का संरक्षण प्रदान करता है –
- गिरफ़्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होना होगा|
- गिरफ्तारी के कारणों से अवगत कराना|
- अपनी पसंद के वकील से सलाह लेना|
- अनुच्छेद 22 (2) के अनुसार, निवारक निरोध के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्ति को वह संरक्षण नहीं प्राप्त होगा, जो अनुच्छेद 22(1) में प्रदान किये गए हैं|
- निवारक निरोध पर कानून बनाने की शक्ति संसद और राज्य विधानमंडल पोटा जैसे अधिनियमों का निर्माण किया गया है|
शोषण के विरुद्ध अधिकार –
अनुच्छेद
23 (मानव अंगों के दुर्व्यापार और बलात्श्रम का प्रतिषेध)
- संविधान के अनुच्छेद 23 के द्वारा, मानव अंगों के दुर्व्यापार, बेगार और किसी भी प्रकार से शोषण पर रोक लगायी गयी है।
- इस प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए संसद ने बंधुआ मजदूर उन्मूलन अधिनियम, 1976 पारित किया, जिसका उद्देश्य केवल बंधुआ मजदूर को मुक्त कराना ही नहीं, बल्कि इनके पुनर्वास की व्यवस्था करना भी था।
24 (कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध)
- इस अनुच्छेद के द्वारा 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों तथा संकटपूर्ण कार्यों में नियोजित करना प्रतिबंधित किया गया है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद 25 से 28 भारत को पंथ निरपेक्ष राज्य के रूप में स्थापित करते है। बोम्मई मामले में उच्चतम न्यायालय ने पंथ निरपेक्षता को संविधान का आधारभूत ढांचा घोषित किया। अर्थात् राज्य का कोई अपना धर्म नहीं होगा। राज्य सभी धर्मों के प्रति तटस्थतता की नीति का पालन करेगा।
(अन्त:करण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता)
- अनुच्छेद 25 (1) के अनुसार, सभी व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को अपनाने, धार्मिक आचरण और प्रचार करने का अधिकार दिया गया है।
- व्यक्ति को प्राप्त धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन है।
- अनुच्छेद 25 (2) (A) और (B) के अंतर्गत राज्य व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध निम्न आधारों पर लगा सकता है-
- लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए।
- धार्मिक व्यवहार से जुड़ी हुई किसी आर्थिक राजनीतिक क्रियाओं को विनियमित
- समाज सुधार और कल्याण पर आरोपित।
26 (धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता)
- अनुच्छेद 26 के अनुसार सभी धार्मिक सम्प्रदाय को यह अधिकार है कि वे धार्मिक उद्देश्यों के लिए संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं और उसका प्रबंध भी कर सकते है। इस अनुच्छेद के द्वारा प्रदान किये गये अधिकार सभी धार्मिक सम्प्रदायों को प्राप्त है। किसी भी समूह का धार्मिक सम्प्रदाय होने के लिए तीन शर्ते आवश्यक हैं :
- लोगों का ऐसा समूह हो, जो एक ऐसी सामान्य जीवन पद्धति में विश्वास रखता हो, जो आध्यात्मिक उन्नति के लिए उचित हो।
27 (किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के लिए स्वतंत्रता)
- किसी विशेष धर्म की उन्नति के लिए नागरिकों को किसी कर को अदा करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है|
- इसका उद्देश्य सर्वधर्म समभाव वाले समाज के निर्माण के लिए प्रोत्साहित करना है|
- इसके अतिरिक्त यह अनुच्छेद इस बात की भी व्यवस्था करता है कि कर के रूप में एकत्रित किये गए धन को राज्य किसी विशेष धर्म की उन्नति के लिए खर्च नहीं कर सकता है|
- यदि बिना किसी भेदभाव के सभी धार्मिक संस्थाओं को राज्य द्वारा समान रूप से सहायता दी जाती है तो वह अनुच्छेद लागू नहीं हो सकता है|
28 (राज्य द्वारा पोषित शिक्षण संस्थानों में धार्मिक शिक्षा का प्रतिषेध)
- राज्य निधि से पूरी तरह सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा देने का प्रतिषेध है। इस अनुच्छेद में चार प्रकार की शिक्षण संस्थानों को स्पष्ट किया गया है-
- पूर्णत: राज्य निधि से सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाएं।
- राज्य से मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थाएं।
- राज्य निधि से सहायता पाने वाली शिक्षण संस्थाएं।
- राज्य से प्रशासित लेकिन किसी ट्रस्ट द्वारा स्थापित संस्थाएं।
- पहले प्रकार की शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है, लेकिन दूसरे तथा तीसरे प्रकार की शिक्षण संस्थाओं में लोगों की स्वीकृति पर धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है।
- चौथे प्रकार की शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देने पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है।
संस्कृति व शिक्षा संबंधी अधिकार
अनुच्छेद 29 (अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण)
- भारत वर्ष में कहीं भी रहने वाले वे नागरिक जिनकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उनको अनुच्छेद 29 के तहत संस्कृति को बनाये रखने का अधिकार दिया गया है।
- अनुच्छेद 29 में दिया गया अधिकार केवल नागरिकों को प्राप्त है और उनके हितों की सुरक्षा के लिए संरक्षण भी प्राप्त है।
अनुच्छेद 30 (शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार)
- अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को अपनी रूचि के अनुसार शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रबंध में शिक्षा का माध्यम पाठ्यक्रम विषयों के चुनाव अधिकार भी शामिल हैं। लेकिन अल्पसंख्यक को दिये गये अधिकार भारत के बहुसंख्यक को प्राप्त नहीं हैं।
- अनुच्छेद 30(1) के अनुसार, सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि के अनुसार अपनी शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार होगा। अनुच्छेद 30(2) के अनुसार, अनुदान या सरकारी सहायता देते समय राज्य इस प्रकार की शिक्षण संस्थाओं एवं अन्य संस्थाओं में भेद-भाव नहीं करेगा।
अनुच्छेद 31 (सम्पत्ति का अनिवार्य अर्जन)
- संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 द्वारा निरसित। अर्थात् अनुच्छेद 31 के अधीन संपत्ति के अधिकार का लोप कर दिया गया। इस प्रकार से संपत्ति का अधिकार अब मूल अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 31 में जो उपबंध था उसे अध्याय में अनुच्छेद 300क बना दिया गया है। इस प्रकार संपत्ति का अधिकार सांविधानिक अधिकार तो है पर मूल अधिकार नहीं है|
- अनुच्छेद 31क-संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति।
- अनुच्छेद 31ख-कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यकरण।
- अनुच्छेद 31ग-कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति।
- अनुच्छेद 31घ- राष्ट्र विरोधी क्रियाकलाप के संबंध में विधियों की व्यावृत्ति।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
सिर्फ अधिकार देने से ही समस्याएँ हल नहीं हो जाती हैं, जब तक कि उसे लागू न किया जाये। इसलिए संविधान में अनुच्छेद 32 से 35 तक संवैधानिक उपचारों के अधिकारों की व्यवस्था की गयी है।
अनुच्छेद 32 (प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उपचार)
- अनुच्छेद 32 उच्चतम न्यायालय को एवं अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को यह अधिकार देता है कि ये न्यायालय नागरिकों के मूल अधिकारों के हनन की स्थिति में बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, अधिकार पृच्छा, उत्प्रेषण एवं प्रतिषेध जैसे लेखों (रिटों) को जारी कर मौलिक अधिकारों की रक्षा करें।
- अनुच्छेद 32 के तहत कारवाई तभी की जा सकती है, जब मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो। यह इतना महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद है कि इसे ‘संविधान का हृदय एवं आत्मा’ कहते हैं।
अनुच्छेद 33 (प्रदत्त अधिकारों का, बलों आदि को लागू होने में, उपांतरण करने की संसद की शक्ति)
- संसद विधि द्वारा अवधारण कर सकेगी कि इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से कोई सशस्त्र बलों के सदस्यों को, या लोक व्यवस्था बनाये रखने का भारसाधन करने वाले बलों के सदस्यों को, या आसूचना या प्रति आसूचना के प्रयोजनों के लिए राज्य द्वारा स्थापित किसी ब्यूरो या अन्य संगठन में नियोजित व्यक्तियों, आदि को लागू होने से किस विस्तार तक निबंधित या निराकृत किया जाये जिससे उनके कर्तव्यों का उचित पालन और उनमें अनुशासन बना रहना सुनिश्चित रहे।
अनुच्छेद 34 (जब किसी क्षेत्र में सेना विधि प्रवृत्त है तब प्रदत्त अधिकारों पर निबंधन)
- संसद विधि द्वारा संघ या राज्य की सेवा में किसी व्यक्ति की या किसी अन्य व्यक्ति की किसी ऐसे कार्य के संबंध में क्षतिपूर्ति कर सकेगी जो उसने भारत के राज्य क्षेत्र में, जहां सेना विधि प्रवृत्त थी, व्यवस्था के बनाये रखने या पुनःस्थापना के संबंध में किया है या ऐसे क्षेत्र में सेना विधि के अधीन पारित दंडादेश, दिये गये दंड, आदि को विधिमान्य कर सकेगी।
अनुच्छेद 35 (इस भाग के उपबंधों को प्रभावी बनाने के लिए विधान)
- संसद को यह शक्ति होगी कि वह जिन विषयों के लिए अनुच्छेद 16(3), 32(3), 33 और 34 के अधीन संसद विधि द्वारा उपबंध कर सकेगी। साथ ही, उसे ऐसे कार्यों के लिए, जो इस भाग के अधीन अपराध घोषित किये गये हैं, दंड विहित करने के लिए विधि बनाने का अधिकार होगा।
- ये अधिकार राज्य के विधान मंडलों के नहीं होंगे।
मौलिक अधिकारों की सीमाएं
- भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकार निर्बाध नहीं हैं। राष्ट्रहित में इन्हें निलम्बित किया जा सकता है। न्यायालय की अवमानना, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता आदि के संबंध में मूल अधिकार निलम्बित किये जा सकते हैं।
- संसद को अनुच्छेद 33 और 34 द्वारा विभिन्न परिस्थितियों में इन अधिकारों को सीमित करने या इनसे संबंधित नियम बनाने की शक्ति दी गयी है। भारत में 1962, 1971 एवं 1975 में विभिन्न संकटों के दौरान मौलिक अधिकारों को निलम्बित किया गया था। यही कारण है कि आलोचकों ने मौलिक अधिकारों की आलोचना करते हुए कहा है कि संविधान एक हाथ से मूल अधिकार देता है, तो दूसरे हाथ से उसे छीन भी लेता है।
- परन्तु, इससे मौलिक अधिकारों की महत्ता कम नहीं होती। वास्तव में मौलिक अधिकार व्यक्तित्व के विकास के अटल अधिकार हैं। ये लोगों को स्वेच्छापूर्वक जीवन जीने का अवसर देते हैं।
- जहां तक इस पर निलम्बन की बात है, तो राष्ट्रहित में इस पर प्रतिबंध आवश्यक है और जहां तक इसकी रक्षा की बात है, तो एम.वी. पायलीके शब्दों में, “मूल अधिकारों की रक्षा कानून द्वारा नहीं, अपितु सतत् जागरूक जनमत द्वारा होती है।”
मौलिक अधिकारों में संशोधन
- मौलिक अधिकारों में संशोधन के संबंध में उच्चतम न्यायालय समय-समय पर निर्णय दिया।
- शंकरी प्रसाद तथा सज्जन सिंह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद सर्वोच्च है और संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है। चाहे वह भाग तीन का मौलिक अधिकार ही क्यों ना हो।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के मामले में उच्चतम न्यायलय ने अपने पूर्व के दृष्टिकोण में परिवर्तन करते हुए यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 368 के माध्यम से संसद संविधान के भाग तीन में संशोधन नहीं सकती क्योंकि अनुच्छेद 368 में केवल संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है।
- केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व के निर्णय में संशोधन करते हुए यह निर्णय दिया, संसद सर्वोच्च है और वह संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है।
- लेकिन संशोधन का स्वरूप इस प्रकार नहीं होना चाहिए जिससे संविधान का आधारभूत ढांचा (Basic Structure) ही परिवर्तित हो जाये। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने आधारभूत ढांचा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और संसद की संविधान संशोधन की शक्ति को सीमित कर दिया।